Tuesday, November 15, 2016

ज़रा सोचिये "सरकार" वह गुल्लक है काला धन नहीं 


"आज अपना देश सारा लाम पर है,
जो जहाँ भी है ,वतन के काम पर है...."
       ख्यातिलब्ध शब्दशिल्पी मरहूम राजेंद्र अनुरागी जी की ये पंक्तियाँ आज मुझे अनायास ही तब याद आ  गईं जब मैंने आज फिर एक बैंक के बाहर मजबूरियों की कतार देखी..... हालांकि ज़हन में इस कालजयी रचना की दूसरी पंक्ति का एक शब्द बदल गया  जिसके लिए मन में ग्लानिभाव भी है..... जो  जहां भी है "नोट" के काम पर है....  समय से कीमती कुछ नहीं होता.... वही समय किसी प्रोडक्टिव काम में  लगने की जगह नोट बदलवाने के नॉन प्रोडक्टिव काम में ज़ाया हो रहा  है... जिन धनपशुओं { कथित रूप से  } के काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक के लिए यह फैसला "सरकार " ने लिया था वे तो अभी भी चैन की नींद सो रहे हैं.... हलाकान हो रहा है वह आम आदमी जो ब्लैक तो बहुत दूर वाइट मनी कमाने के लिए भी रोज अपने खून और पसीने का सौदा करता है.... "सरकार " सुनते हैं आपने यह   फैसला यूपी के आसन्न चुनावों में माया बहन जी और मुलायम सिंह यादव को धोबी-पाट के दांव के रूप में किया है... ताकि वे चुनावों के लिए जोड़ कर रखे गए अरबों रुपयों का उपयोग वोट की मंडी में ना कर  सकें.... सुनते यह भी हैं "सरकार" कि आपकी पार्टी के पास भी ऐसा ही आड़े वक़्त यानी चुनाव में काम आने वाला अर्थ था जिसे आपने पहले ही सफ़ेद करवा लिया.... फिर यह निर्णय लिया... ये तो खैर आरोप-प्रत्यारोप हैं...हमाम एक है और उसमें नहाने वाले भी एक हैं.... पर पिस  तो "सरकार" वो मासूम रहा है जो आपके दिखाए हर ख्वाब से दिल लगा लेता है... अब आपको ये कौन समझाए कि जिस हिंदुस्तान पर आप राज कर रहे हैं वहां बेटी के जन्म के साथ ही एक गुल्लक बन जाती है जिसमें अपनी ख्वाहिशों का सौदा करके माँ-बाप रोज दो-चार-पांच-दस के नोट डालते रहते हैं.....यह गुल्लक कभी किसी बैंक का हिस्सा नहीं बनती पर बिटिया के शादी की उम्र का होते होते किसी बैंक अकाउंट की ही तरह हो जाती है.... पर "सरकार" आपने एक ही झटके में उस गुड़िया की शादी वाली गुल्लक को ब्लैक मनी बना दिया क्योंकि वो तो अन -अकॉउंटेड  है ना... आपको यह भी कौन बताये "सरकार" कि कोई ठेले वाला...रिक्शा वाला या सब्जी वाला जो कुछ भी दिन भर में छोटे-छोटे नोट की शक्ल में कमाता है उसे शाम को अपने मोहल्ले के परचून वाले की दुकान में जरूरत का सामान खरीदने के बाद बंधवा लेता है यानी 500 -1000 के नोट में तब्दील करवाकर सहेज लेता है....और फिर एक दिन अपने घर,,अपने गांव जाकर माँ-पिता या पत्नी के हाथों में थमा देता है... आड़े वक़्त पर काम आने के लिए... वह पढ़ा-लिखा नहीं होता "सरकार" इसलिए बैंक की तरफ देखने से भी डरता है...मगर आपने उसकी इस गुल्लक को भी ब्लैक मनी बना दिया.... वो अखबार नहीं पढता "सरकार" और टीवी देखने की भी विलासिता उसकी किस्मत में नहीं है.... वह सुन जरूर रहा है की 1000 का नोट अब नहीं चलेगा क्योंकि ब्लैक मनी से युद्ध शुरू हुआ है...मगर वह यह सुनकर भी निश्चिन्त है क्यों कि  उसे भरोसा है आप पर कि  आप उसकी मेहनत  की कमाई को थोड़े ही काल धन समझते होंगे....यह सोच कर वह संभवतः कोई प्रयास भी नहीं कर रहा गांव में अपने घर में आड़े-वक़्त के लिए सहेजे उन चंद  लाल-पीले नोटों को बदलवाने का.... ज़रा सोचिये "सरकार" उसके साथ कितना बड़ा धोखा हो रहा है... सोचिये यह भी कि  दिवाली के पहले ही गांवों में धान की फसल कटकर और बिक कर 1000 - 500 के नोटों की शक्ल में मेहनतकश किसानों के घर में पहुंची है... वो भी इस "मेहनताने" को बैंक में नहीं रखता....क्योंकि इसीसे उसको अगली फसल के लिए बीज और खाद खरीदने हैं....बहुत दिनों से मनुहार कर रही जीवनसाथी के लिए कोई छोटा सा ही सही गहना खरीदना है या बेटे को इंजीनियर बनाने की फीस चुकाना है.... यह सफ़ेद "मेहनताना" भी "सरकार" आपने एक ही झटके में काला  कर दिया... हवाई जहाज से उतरकर कभी सड़क पर आइये और देखिये "सरकार" बैंकों की कतारों में लगी शक्लों को.... कोई बूढ़ा है...कोई अपंग तो कोई ऑफिस से छुट्टी लेकर लाइन में लगने आया है... गौर से देखिये इनमें कोई आपको काले धन का मालिक दिखता है क्या.... सड़क पर और आगे जाइये और देखिये उन रेहड़ी वालों को जिनसे अब कोई सौदा नहीं ले रहा और जो "दुष्यंत" के  शब्दों में पत्थर उबालकर खाने और आसमान को ओढ़कर सोने मजबूर हैं.... क़दमों की हर आहट  उन्हें एक दिलासा सा देती है कि शायद किसी को छोटे नोट मिल गए हैं और वो सौदा खरीदने आ रहा है.... "सरकार" इस लोकतंत्र में झटके और धोखे सहने का आदी  तो हो गया है आम आदमी पर यह तो ज़ुल्म है उस पर ,,ऐसा ज़ुल्म जिसका जुर्माना भी वही भर रहा है....क्योंकि उनकी "सरकार" एक युद्ध लड़ रही है "जाने किससे"..... या शायद "उसीसे"...                         

Monday, October 17, 2016

जिनको कुछ नहीं चाहिए वे साहन के साह

आज फिर उस जोड़े पर नज़र पड़ गई... दोनों बेहद खुश दिख रहे थे... जाने किस बात पर खिलखिला रहे थे... शायद कोई गाना भी सुन रहे थे एक बाबा आदम के जमाने के ट्रांसिस्टर पर...होनी नहीं चाहिए थी पर ईर्ष्या हुई उनसे.... जब आज  हम लोग परिवार और यारों-दोस्तों के साथ बैठकर दो बातें करने को भी तरस जाते हैं.... फुरसत के लम्हे ढूंढते-ढूंढते महिनों  निकल जाते हैं तब ये अलमस्त  खिलखिला रहे थे.... हलकी-हलकी बारिश हो रही थी... दोनों ही एक पेड़ के नीचे बैठे थे.... आज सुबह से मेरी भी ऐसी ही इच्छा  हो रही थी की घर से ना निकलकर  या तो टीवी देखूं या कोई उपन्यास पढूं...  दो चार दोस्तों को बुलाकर कहीं आउटिंग पर निकल जाऊँ....मगर ऐसी आज़ादी मेरे नसीब में नहीं थी... कुछ जरूरी काम मेरा इंतज़ार कर रहे थे.... आखिर मन मारकर निकलना ही पड़ा... थोड़ा सा आगे बढ़ते ही  इस जोड़े पर नज़र पड़ गई... यह दरअसल एक भिखारी जोड़ा था...अपने आस-पास की दुनिया से बेपरवाह ,जो अपने वक़्त के खुद मालिक थे... जिन्हें इस बात की   चिंता नहीं  थी कि  बारिश होती रही तो शाम का खाना  मिल पायेगा या नहीं....अचानक कोई बीमारी हो गई तो इलाज के रुपये कहाँ से आएंगे.... उनके पास ना अपनी दीवारें थीं ना ही दरवाजा... फिर वे भी बेफिक्र थे.... एक दूसरे को समय दे रहे थे... गाने सुन रहे थे और मेरे जैसों को खुश रहने का मंत्र दे रहे थे... सुख - समृद्धि और वैभव के साथ साथ सामाजिक पद-प्रतिष्ठा के लिए हम लोग क्या-क्या नहीं खोते...कहाँ-कहाँ बेईमान नहीं होते....किस-किस का दिल नहीं दुखाते...कब-कब खुद को नहीं मारते.... ज़िन्दगी के रंगमंच पर अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करते-करते कब साँसों का हिसाब पूरा हो जाता है पता ही नहीं चलता...एक के ऊपर दूसरा आवरण ओढ़ते या  ओढाते..कहीं एक तो कहीं दूसरा चेहरा दिखाते फना हो जाती है ये छोटी सी ज़िन्दगी...उस भिखारी जोड़े के लिए उपजी ईर्ष्या शायद ईर्ष्या नहीं खुद पर लानत थी... शर्मिन्दगी  थी.... तभी याद आ गया रहीम का वह दोहा... "चाह गई,चिंता मिटी... मनवा बेपरवाह,,,,,,,जिनको कुछ नहीं चाहिए वे साहन के साह,.... "       

Friday, October 14, 2016

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध



खबर है कि मेरे हमपेशा खबरची रवीश कुमार को ट्विटर के बाद अब अपना फ़ेसबुक अकॉउन्ट भी बंद कर देना पड़ा है.... एक ख़ास विचारधारा से जुड़े भक्तों को उनकी साफगोई पसंद नहीं आ रही है.... उन्हें और उनके परिवारवालों को रोज जान से मार देने सहित कई तरह की धमकियाँ मिल रही हैं... ट्विटर या फ़ेसबुक अकाउन्ट बंद कर देने का आशय यह नहीं है की रवीश  डर गए... वे तो बस फ़ालतू की बकवास पढ़कर अपना वक़्त जाया करने से बचना चाहते हैं....तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन के साथ भी ऐसा ही हुआ था... इसी विचारधारा के परमभक्तों ने उनकी भी कलम पकड़ने की कोशिश की थी... उनके साथ मारपीट भी की गई थी... तब उन्होंने कहा था की एक लेखक के रूप में मैं अब मर गया हूँ... वास्तव में उन्होंने उस घटना के बाद अपनी कलम को विराम दे दे दिया.... उसके भी पहले तस्लीमा नसरीन के साथ भी  ऐसा ही हुआ था...आपको शायद सलमान रुश्दी भी याद हों... उन्हें तो देश ही छोड़ देना पड़ा था... ये उदाहरण  हो सकता है एक नज़र में उतने गंभीर ना लग रहे हों मगर कलम को पकड़ने की इस असहिस्णुता के परिणाम मेरी दृष्टि में बेहद खौफनाक होंगे... 21 वीं सदी में जब हम  अंतरिक्ष को जीतने की सोच रहे हैं तब ऐसी मध्ययुगीन कबीलाई मानसिकता देश ,समाज और पीढ़ियों का कितना नुकसान करेगी इसकी कल्पना ही शरीर में सिहरन पैदा कर देती है... दी होगी संविधान ने इस देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति  की मुखरता पर ये जुनूनी और उन्मादी किसी कानून को नहीं मानते...राष्ट्रद्रोह  और राष्ट्रवाद की नई -नई परिभाषाएँ गढ़ रहे हैं ये भक्त.... जाने किस दिशा में जा रहा है मेरा भारत महान.... उन्मादियों की मुखरता के बीच समाज के ताने-बाने को एक ख़ामोशी भी तोड़ रही है..... हैरान कर देने वाली यह ख़ामोशी है उस पढ़े-लिखे मध्यम  वर्ग की जिसे इन हालातों में  मुखर  होना था क्योंकि वह शिक्षित है,, शिक्षित होने के नाते समझदार है और समझदार होने के बूते जिम्मेदार है.... मगर उसकी यह शिक्षा,,यह समझ और यह जिम्मेदारी सिर्फ नए वेतनमान,, एरियर्स,, बोनस और एक सुकून भरी ज़िन्दगी तक ही सिमट कर रह गई है...किन्तु यह सुकून भी कब तक... क्योंकि उस उन्माद और इस सुकून के बीच एक बेहद क्षीण सी लकीर है जो कभी भी टूटकर ठहरे  जल में भूचाल ला सकती है.... बेहद खतरनाक है यह तटस्थता.... उन जुनूनियों की मुखरता से शायद ज्यादा जहरीली साबित हो सकती है यह ख़ामोशी..... क्योंकि                                                                                            समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र 
                                             जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।।।।  

Wednesday, October 12, 2016

वह ज़िन्दगी का गीत था... 

Saturday, May 15, 2010

जात ही पूछो साधू की.....

लोकतंत्र,गणतंत्र और जनतंत्र के बेशर्म चीरहरण की अप-परंपरा को आगे बढ़ाते हुए हमारे देश का विकल्पहीन नेतृत्व एक और ऐतिहासिक गलती करने उद्धत है.वह अब देश की जनगणना को जाति गणना की आग में झोंककर उस पर राजनीतिक तवा चढ़ाना चाहता है जिससे वोट की रोटियां सेंकी जा सकें.मिसाइलों,राकेटों,चंद्रयानों और अन्तरिक्ष यात्राओं के युग में जाति आधारित जनगणना उस देश के लिए तो बदनसीबी से बढ़कर कुछ नहीं है जो ज्हूझ रहा है अशिक्षा,गरीबी,बेरोजगारी,दहेज़ हत्या.कन्या भ्रूण हननऔर खाप पंचायतों के क्रूर फरमानों से,धर्मांध फतवों से.देश को ४-५ सौ साल पहले की मध्य-युगीन जातीय द्वेष तथा घ्रणा से लबालब मानसिकता में झोंक देने का यह षड़यंत्र सिर्फ और सिर्फ वोट के लिए किया जा रहा है.विडम्बना यह है कि यह मांग वे स्वार्थी नेता उठा रहे हैं जो खुद को राम मनोहर लोहिया पोषित समाजवाद का अनुगामी,अनुयायी और खेवैया कहते हैं.लालू ,शरद और मुलायम तीनों ही लोहियाई समाजवाद कि नैया पर सवार हैं.पर वे शायद यह भूल गए हैं कि उनके गुरु ने जातिविहीन समाज का नारा एक दूरदर्शी सोच के साथ बुलंद किया था.दूसरी ओर स्वयं को बौद्धिक राजनीति का सिरमौर बताने वाली भारतीय जनता पार्टी भी इस पूरे मामले में यादव तिकड़ी के साथ इसलिए खड़ी हुयी है क्यूंकि पुरस्कार के रूप में वोट और सत्ता का लालच है.भूल गई है यह पार्टी भी कि उसके संस्थापक पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने जाति नहीं एकात्म मानववाद का पंथ सुझाया था.इस रास्ते पर न तो संघर्ष था ,न स्वार्थ और न ही सत्ता कि अंधी दौड़.दुर्भाग्य यह भी है कि सत्ता का स्वर्ण मृग हासिल करने की इस बेहया नग्न दौड़ में कांग्रेस भी पूरी चालाकी के साथ खड़ी नज़र आ रही है.......खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,साफ़ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं.कमोबेश इसी तर्ज़ पर कांग्रेस ने पहले आह और फिर हामी भर दी.यानी हमाम में सभी एक साथ नंगे खड़े हो गए हैं.गाफिल हैं ये सारे सियासतदां देश कि जरूरतों से,देश को आजादी दिलाने वाली कुर्बानियों से और इनको{नेताओं को}अपने खून-पसीने से पाल -पोस रहे आम आदमी के सपनों से.यदि हम इक्कीसवीं सदी में भी इंसान को उसकी जात से पहचानेंगे तो क्या होगा संविधान कीभावनाओं का .संविधान निर्माता तो चाहते थे कि देश का हर नागरिक साधू कि तरह हो जाये....गृहस्थ संत सा हो जाए.कहा भी गया है कि "जात न पूछो साधू की"...वहीँ हम बहुत जल्द faisla लेने वाले हैं कि इस देश में वही रह पायेगा जिसकी अपनी कोई जाति होगी.क्या यह इस देश के लिए दुर्भाग्य की बात नहीं है ?ये नेता गन्दी राजनीती के गटर में कब तक फेंकते रहेंगे गाँधी और लोहिया के सपनों को......... ......................................आपका ......डा पंकज शुक्ल ....................................................................

Friday, May 7, 2010

सलाम डाक्टर फैज़ल....

कसाब के फैसले से लेकर संसद में उड़न-छू मुद्दों पर शर्मनाक अलोकतांत्रिक चर्चाओं की सुर्ख़ियों के बीच हिंसाग्रस्त कश्मीर में उम्मीदों का एक दीपक जलने की खबर भी भी देश के रिसालों {अखबारों} में शाया{प्रकाशित}हुई.यह खबर है एक कश्मीरी नौजवान के यू पी एस सी परीक्षा में अव्वल रहने की.....यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा का गौरवशाली अंग बनने की.शाह फैज़ल नामक एम् बी बी एस डाक्टर ने यह बेहद मुश्किल इम्तिहां पहले ही प्रयास में पास कर लिया.निश्चित रूप से यह एक राहत भरी खबर है, केवल कश्मीर और वहां के नौजवानों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए भी जिसकी नज़रों में कश्मीर का दूसरा नाम ही विवाद ,हिंसा और असंतोष है.डाक्टर फैज़ल की यह कामयाबी तमाचे की चटाक ध्वनि बनकर गूंजती रहेगी उन बेशर्म गालों पर जिनके लिए कश्मीर दुनिया की जन्नत नहीं सियासत का गन्दा नाला बन गया है.उनकी नज़रों में यहाँ की खूबसूरत वादियाँ सिर्फ एके ४७ रायफलों को पनाह दे सकती हैं,कलम और संगीत का जादू अब वहां दफ़न हो चुका हैहै.मगर नहीं...श्रीनगर का लाल चौक आगे से डाक्टर शाह फैज़ल की कामयाबी का गान भी अब पूरी दुनिया को सुनाएगा...बताएगा की कश्मीर में उम्मीद अभी भी जिन्दा है...यह जयघोष होगा "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा का".यह उद्घोष होगा की कश्मीर दहशतगर्दों और अलगाव वादियों का दोजख नहीं डाक्टर शाह फैज़ल जैसों की रचनात्मक जन्नत भी है.यह कामयाबी अब एक खबर भी बनेगी उन अमेरिका ,पाकिस्तान जैसे देशों और भारत विरोधी संगठनों के लिए जो कश्मीर के नाम पर अफवाहों के अंतर राष्ट्रीय मार्केट में राजनितिक रोटियां सेंक और बेच रहे हैं,जो संयुक्त राष्ट्र में लगातार दावा कर रहे हैं कश्मीर के लाइलाज हो जाने का,जो जाने कहाँ-कहाँ से धन जुटा रहे हैं कश्मीर के नाम पर,जो लगातार स्यापा कर रहे हैं इस जन्नत में मानवाधिकारों को दफ़न कर दिए जाने का.आशा है फैज़ल नामक उम्मीदों का यह दीपक स्वार्थों के जंगल के घटाटोप को उजियारे में बदल देगा,खामोश कर देगा उन विकृत चीत्कारों को जो जन्नत को दोजख बनाने हर मुमकिन - नामुमकिन कोशिशें कर रहीं हैं.हेट्स ऑफ़ तू यू डाक्टर फैज़ल....एंड थंक्स फ्रॉम ग्रेटफुल नेशन..

Saturday, March 21, 2009

शर्म हमको मगर नहीं आती ...


"शहीदों कि चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले

वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा । "


आज अचानक ये पंक्तियाँ तब याद आ गईं जब शहीद भगत सिंह की प्रतिमा {बष्ट} के सामने से गुजरते वक़्त उस पर उकेरी गई तिथि २३ मार्च (शहीद दिवस ) पर नज़र पड़ी । शर्म खुद पर भी आई क्यूंकि हकीक़त तो यही है कि अचानक यदि नज़र नहीं जाती तो मुझे भी याद नहीं रहता कि २३ मार्च का क्या महत्व है ? हम सब कितने खुदगर्ज़ हो गए हैं ? अपनों के जन्मदिन का कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं, किसी ख़ास का जन्मदिन कहीं एन मौके पर भूल न जाएँ इसके लिए कितने जतन करते हैं ?पर यदि सरकारी छुट्टी न हो तो इन्कलाब के महानतम योद्धाओं को भी पूरी बेशर्मी से भूल जाते हैं । ये शहीद अब सिर्फ पाठ्य पुस्तकों कि मजबूरी तक सीमित रह गए हैं।यदा-कदा बच्चों के मासूम सवालों में भी ये जिन्दा हो उठते हैं।मगर उसके बाद फुलस्टाप । मेरे ही शहर में शहीद भगत सिंह की पहली प्रतिमा { वह भी आधी यानि बष्ट } सन २००५ में लगी। जबकि १९४७ के बाद के तथाकथित राष्ट्रनायकों की कम से कम ५० प्रतिमाएं जिन पर साल में दो-दो बार {जन्म और अवसान दिवस}अलग-अलग राजनीतिक दलों के लोग मेला जैसा लगाते हैं । इनके भी अपने-अपने इष्ट होते हैं । माला भी उसी को पहनाई जाती है जिसके वारिसों में राजनीतिक लाभ दिलाने की कूबत हो ।


क्या यह सोचना अतिरंजना होगी की एक दिन एक पीढी ऐसी भी होगी जिसके दिलो-दिमाग से इन्कलाब के किस्से डिलीट हो चुके होंगे या जो उन्हें कॉमिक हीरोज की तरह अवास्तविक पात्र मानने लगेगी । ऐसे हालात न बनें इसके लिए हम ख़बरनवीसों को अपनी भुमिका तलाश करनी होगी ।
ऐसे हालात न बने इसके लिए कम से कम शहीदों के जन्म और अवसान दिवस इस तरह मनाये जाए जैसे कोई तीज त्यौहार मनाया जाता है ताकि नई पीढी उन अमर शहीदों को अपना आदर्श और आराध्य समझ सके ...
समाज को रियल और रील और हीरोज के बीच फर्क करना सीखना ही होगा । कुछ ऐसा किया जाए कि हम नौनिहालों को इंक़लाब का अर्थ और इन्कलाब के लिए चुकाई गई कीमत के किस्से घुट्टी की तरह पिला सके । त्योहारों की तरह उनका जन्म भी जन्माष्टमी और शहादत मुहर्रम के मातम जैसी हो जाए ।
जिंदगी की जय का गीत गुनगुनाने वाले शहीदों को मेरा नमन ....