वह ज़िन्दगी का गीत था...
दो रोटी कमाने के लिए इंसान को क्या क्या नहीं करना पड़ता। भीख मांगने से लेकर शरीर बेचने तक,,रिक्शा खींचने से लेकर दूसरों के लिए माँ [सरोगेसी ]बनने तक....... मगर जब मेरी मुलाकात लक्ष्मी अन्ना से हुई तो मजबूरी का एक सर्वथा अनूठा सा ही अध्याय मेरे सामने खुल गया। यह उन दिनों की बात है जब कुछ डॉक्टर मित्रों की सलाह पर मैंने पैदल ही ऑफिस आना-जाना शुरू किया था.... घर ज्यादा दूर भी नहीं था इसलिए सलाह को मानने और अपनाने में कोई दिक्कत भी नहीं हुई ....तकरीबन पौने दो किलोमीटर जाना और उतना ही आना....न्यूज़ एडिटर की जिम्मेदारी थी इसलिए लौटते -लौटते डेढ़ से दो बज ही जाते थे रात में....सैन्य क्षेत्र से गुजरना होता था अतः सड़कों पर रातों के बादशाह कुत्तों के अलावा कोई दूसरा ख़ौफ़ भी नहीं था....धीरे-धीरे वे भी पहचानने लगे... अचानक एक दिन लगा की एक और शख्स को जानना चाहिए ....वह रोज दिखता था .... वक़्त की मार खाया बूढ़ा कृशकाय शरीर ..... उंम्र होगी यही कोई 75 से 80 के बीच... मुश्किल से अपनी ही जैसी अपनी कृशकाय साइकिल को खींचता हुआ...एक अखबारनवीस का जिज्ञासु मस्तिष्क आखिर कब तक शांत रहता.....एक रात आवाज दे ही दी...सुनो दादा....उस दिन एक और अहसास हुआ की जिसके पास खोने या लुटने के लिए कुछ नहीं होता उसको किसी तरह का भय भी नहीं होता.... और कोई होता तो इतनी रात को एक सुनसान सड़क पर किसी अजनबी के पुकारे जाने पर डर जाता.....रुकने के पहले दो बार सोचता मगर उसे तो कोई भय था ही नहीं.... पुकारते ही साइकिल पर बैठे-बैठे ही मेरे पास आ गया.... उंगलियों के बीच बीड़ी फंसी थी... मेरी ही तरह संभवतः उसका भी हाल था... जैसे उसको देखकर रोज मेरे मन में प्रश्न उमड़ते-घुमड़ते थे वैसे ही शायद मुझे भी रोज इतनी रात अकेला और पैदल देखकर वह भी सोच के भंवर में उलझ जाता होगा...क्योंकि रुकते ही पहला प्रश्न मैंने नहीं उसने उछाला...साहब रोज रात को आपको देखता हूँ... स्टेशन में ड्यूटी करते हैं..... क्या ट्रेन रोज इतने बजे पहुंचती है.... और तो और उसने यह तक पूछ लिया कि इतनी रात अकेले डर नहीं लगता.... यह मेरा प्रश्न होना था... बहरहाल उसके प्रश्नों का जवाब देकर मैंने उससे स्टेशन चलकर चाय पीने का आग्रह किया... वह भी यह कहते हुए कि इस रोड से स्टेशन ही चाय पीने जाता है राजी हो गया... [उतनी रात किसी भी शहर में चाय पीना हो तो बस स्टैंड या स्टेशन का ही रुख करना होता है ]हम दोनों इधर-उधर की बातें करते हुए नजदीक ही स्थित स्टेशन पहुंचे.... प्लेटफॉर्म नंबर एक के उस स्टाल पर गए जहां मेरी पसंद की चाय बन जाती थी... वह चायवाला अखबारनवीसी की सबसे मजबूत कड़ी यानी कि मुखबिर भी था.... वहीँ स्टाल के सामने की बेंच पर बैठे-बैठे लक्ष्मी अन्ना की बातें सुनते-सुनते कब सवेरा हो गया पता ही नहीं चला....हालांकि उसने अपने बारे में कम और जमाने के अपने अनुभवों के बारे में ज्यादा बताया मगर मैं सुनता रहा क्योंकि उसकी बातें ज़िन्दगी का रोजनामचा थीं... अन्ना पेट पालने के लिए वह काम करता था जो मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि किसी के लिए रोजगार का साधन हो सकता है... अन्ना [जैसा उसने बताया] रात को ग्यारह बजे अपनी टूटी-फूटी साइकिल के हैंडलों पर दो थैले लटकाकर अपने रोजगार पर निकलता था... रोजगार था पियक्कड़ों द्वारा सड़क के किनारे फेंकी हुई शराब की खाली बोतलें इकट्ठा करना....रात में इसलिए कि सुबह कहीं कोई और ना बीन ले.... जितना लगता है उतना आसान काम यह था नहीं.... एक तो अन्ना की उम्र उसपर अँधेरे के साम्राज्य में सड़कों के खौफनाक कब्जाधारी... कभी पुलिस रोक लेती तो कभी पियक्कड़ और कभी-कभी तो लुटेरे भी... उसके पास अपनी कोई पहचान भी नहीं थी...बकौल उसके यदि किसी रात उसके साथ कोई हादसा हो जाता तो उसकी पत्नी घर में उसका महीनों इंतज़ार ही करती रहती और इधर उसे किसी थाने की पुलिस लावारिस दफना देती....तमाम खतरों के बावजूद उसके लिए उसी के अनुसार यही सबसे आसान काम था...दो रोटी कमाने के लिए.... कुछ और बातें उसने अपने बारे में बताईं जिन्हें सुनकर दिल क्षत -विक्षत और दिमाग विचार शून्य हो गया...इलाज के अभाव में कई साल पहले ही उसकी पत्नी दृष्टिहीन हो चुकी थी...तीन बेटे थे... तीनों ही अपनी आर्थिक मजबूरियों के चलते माँ -बाप की सेवा करने में असमर्थ थे... वह बेटों की बेरुखी से टूट चुका था मगर उन्हें दोष देने से बच रहा था.... खाना बनाने से लेकर दीया जलाने और बुझाने तक का घर का पूरा काम उसी की जर्जर काया के जिम्मे था....पहले कभी उसको 150 रुपये महीना सामाजिक सुरक्षा पेंशन भी मिलती थी मगर जब वार्ड के पार्षद को शक हुआ कि अन्ना का वोट चुनाव में उसको नहीं मिला तो जाने क्यों अचानक ही यह पेंशन भी बंद हो गई.... बहुत चक्कर लगाए उसने नगर निगम के मगर न्याय नहीं मिला.... उसकी बातें सुनकर मन ना जाने कैसा कैसा तो हो गया....वह इतने हादसों के बीच भी मुस्करा रहा था.... एक बार भी ईश्वर के न्याय[अन्याय ] को लेकर उसने अविश्वास जाहिर नहीं किया...मैंने एक अखबारनवीस की सीमाओं में उसकी कुछ समस्याओं के हल के लिए वादे भी किये....पार्षद को ऑफिस में बुलवाकर उसकी पेंशन भी शुरू करवा दी... पर क्या यह पर्याप्त था... हम दोनों के बीच एक अजीब सा रिश्ता बन गया था...जिस दिन मैं उसे सड़क पर नहीं मिलता तो दूसरे दिन उसे जवाब देना पड़ता....जिस दिन वो नहीं दिखता मेरा मन आशंकाओं से घिर जाता.... इन्हीं आशंकाओं के चलते मैंने उसका नाम पता और मेरा मोबाइल नंबर लिखा एक कार्ड भी उसको इस हिदायत के साथ दिया कि घर से निकलते समय वह उस कार्ड को हमेशा अपनी जेब में रख लिया करे.... कभी जरूरत पड़े तो मुझे फ़ोन भी लगा लिया करे.... मुझे वह ज़िन्दगी का एक हँसता-मुस्कुराता गीत लगता था... ऐसा गीत जिसे रोज गुनगुनाने का मन करे...एक दिन अचानक यह गीत गायब हो गया....मैंने दो-चार-दस दिन इंतज़ार किया...ना वो आया ना उसका फ़ोन... रोज लगता की किसी दिन फिर वैसे ही उंगलियों में बीड़ी फंसाये दिख जायेगा.... घबराहट बढ़ी तो उसके वार्ड के उसी पार्षद को बुलवा कर पूछा.... उसने बताया की अन्ना और उसकी पत्नी की आज शुद्धि है...अन्ना की मृत्यु की खबर के ५ घंटे बाद ही उसकी पत्नी की भी मौत हो गई थी....शायद अच्छा ही हुआ...ईश्वर ने देर से ही सही उस दृष्टिहीन के साथ न्याय कर दिया था....उस रात बड़ी मुश्किल से मैं अन्ना के बिना उस सड़क पर पैदल अपना सफर पूरा कर पाया ..
No comments:
Post a Comment