Saturday, March 21, 2009

शर्म हमको मगर नहीं आती ...


"शहीदों कि चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले

वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा । "


आज अचानक ये पंक्तियाँ तब याद आ गईं जब शहीद भगत सिंह की प्रतिमा {बष्ट} के सामने से गुजरते वक़्त उस पर उकेरी गई तिथि २३ मार्च (शहीद दिवस ) पर नज़र पड़ी । शर्म खुद पर भी आई क्यूंकि हकीक़त तो यही है कि अचानक यदि नज़र नहीं जाती तो मुझे भी याद नहीं रहता कि २३ मार्च का क्या महत्व है ? हम सब कितने खुदगर्ज़ हो गए हैं ? अपनों के जन्मदिन का कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं, किसी ख़ास का जन्मदिन कहीं एन मौके पर भूल न जाएँ इसके लिए कितने जतन करते हैं ?पर यदि सरकारी छुट्टी न हो तो इन्कलाब के महानतम योद्धाओं को भी पूरी बेशर्मी से भूल जाते हैं । ये शहीद अब सिर्फ पाठ्य पुस्तकों कि मजबूरी तक सीमित रह गए हैं।यदा-कदा बच्चों के मासूम सवालों में भी ये जिन्दा हो उठते हैं।मगर उसके बाद फुलस्टाप । मेरे ही शहर में शहीद भगत सिंह की पहली प्रतिमा { वह भी आधी यानि बष्ट } सन २००५ में लगी। जबकि १९४७ के बाद के तथाकथित राष्ट्रनायकों की कम से कम ५० प्रतिमाएं जिन पर साल में दो-दो बार {जन्म और अवसान दिवस}अलग-अलग राजनीतिक दलों के लोग मेला जैसा लगाते हैं । इनके भी अपने-अपने इष्ट होते हैं । माला भी उसी को पहनाई जाती है जिसके वारिसों में राजनीतिक लाभ दिलाने की कूबत हो ।


क्या यह सोचना अतिरंजना होगी की एक दिन एक पीढी ऐसी भी होगी जिसके दिलो-दिमाग से इन्कलाब के किस्से डिलीट हो चुके होंगे या जो उन्हें कॉमिक हीरोज की तरह अवास्तविक पात्र मानने लगेगी । ऐसे हालात न बनें इसके लिए हम ख़बरनवीसों को अपनी भुमिका तलाश करनी होगी ।
ऐसे हालात न बने इसके लिए कम से कम शहीदों के जन्म और अवसान दिवस इस तरह मनाये जाए जैसे कोई तीज त्यौहार मनाया जाता है ताकि नई पीढी उन अमर शहीदों को अपना आदर्श और आराध्य समझ सके ...
समाज को रियल और रील और हीरोज के बीच फर्क करना सीखना ही होगा । कुछ ऐसा किया जाए कि हम नौनिहालों को इंक़लाब का अर्थ और इन्कलाब के लिए चुकाई गई कीमत के किस्से घुट्टी की तरह पिला सके । त्योहारों की तरह उनका जन्म भी जन्माष्टमी और शहादत मुहर्रम के मातम जैसी हो जाए ।
जिंदगी की जय का गीत गुनगुनाने वाले शहीदों को मेरा नमन ....

Friday, March 20, 2009

फिर क्यों डर रहे हैं हम ...?


द ग्रेट इंडियन पोलिटिकल जंगल शो में देश की इज्जत पर बट्टा लगाने की होड़ एक बार फिर शुरू हो गई है.इस बार दाँव पर है देश का अब तक का सबसे बड़ा और सबसे लोकप्रिय खेल तमाशा इंडियन प्रीमिअर लीग यानि आईपीएल .मैं व्यक्तिगत रूप से इस तमाशे का समर्थक हूँ या नहीं यह बात अलहदा है,पर मुझे यह जरूर लग रहा है कि यदि हम आईपीएल का आयोजन सफलतापूर्वक नहीं करवा पाए दुनिया में हम एक ऐसे राष्ट्र के रूप में बदनाम हो जायेंगे जो एक समय में एक ही बड़ा आयोजन करा सकता है और आंतरिक तथा बाह्य सुरक्षा के जिसके दावे सिर्फ गाल बजाने के लिए हैं.क्रिकेट के धुर विरोधियों को भी यह बात तो माननी ही होगी कि पिछले साल इस तमाशे ने बोलीवुड को भी पछाड़ दिया .देश का यही एकमात्र खेल आयोजन है जिसमें भाग लेने दुनिया के शीर्षस्थ खिलाडी तैयार रहते हैं.इस आयोजन को लेकर राजनीति की बाल कभी गुगली तो कभी दुसरा और कभी योर्कर की तरह केंद्र तथा राज्यों के द्वारा एक दूसरे की ओर फेंकी जा रही है । कारण भी साफ़ है । इस दुधारू खेल के राज्य संघों पर मक्खियों की तरह राजनेता ही चिपके हुए हैं.उनके लिए खेल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है एक दूसरे को नीचा दिखाना शायद वे इसीलिए इस बात को नहीं समझ पा रहे है कि आई पी एल के साथ देश का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है । हम इसे अब फकत एक खेल न मानें बल्कि राष्ट्र की परीक्षा मानें । इस एक आयोजन को करवाने में हमारी नाकामी हो सकता है कि भविष्य की आर्थिक संभावनाओं को भी कमजोर कर दे । आतंकवाद से निपटने की जगह यदि हम खेलो पर लगाम कसने लगेंगे तो यह हमारी बेवकूफी होगी । आगे हमें राष्ट्रमंडल खेल और विश्वकप क्रिकेट आयोजित करने हैं । आई पी एल की अनिश्चितता पर्यटन और विमानन उद्योग जिस में होटल भी शामिल हैं, की संभावनाओं को भी प्रतिकूल सन्देश देगी . आखिर हम चुनावों को हौआ बना कर दुनिया को क्या बताना चाहते हैं . हमारे यहाँ चुनावों में अशांति की स्थिति अधिक से अधिक बिहार ,जम्मू कश्मीर या पश्चिम बंगाल में होती है । इनमे से आई पी एल के खेल भी सिर्फ़ कलकत्ता में होते है ।
फिर क्यों डर रहे है हम .......?