"शहीदों कि चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा । "
आज अचानक ये पंक्तियाँ तब याद आ गईं जब शहीद भगत सिंह की प्रतिमा {बष्ट} के सामने से गुजरते वक़्त उस पर उकेरी गई तिथि २३ मार्च (शहीद दिवस ) पर नज़र पड़ी । शर्म खुद पर भी आई क्यूंकि हकीक़त तो यही है कि अचानक यदि नज़र नहीं जाती तो मुझे भी याद नहीं रहता कि २३ मार्च का क्या महत्व है ? हम सब कितने खुदगर्ज़ हो गए हैं ? अपनों के जन्मदिन का कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं, किसी ख़ास का जन्मदिन कहीं एन मौके पर भूल न जाएँ इसके लिए कितने जतन करते हैं ?पर यदि सरकारी छुट्टी न हो तो इन्कलाब के महानतम योद्धाओं को भी पूरी बेशर्मी से भूल जाते हैं । ये शहीद अब सिर्फ पाठ्य पुस्तकों कि मजबूरी तक सीमित रह गए हैं।यदा-कदा बच्चों के मासूम सवालों में भी ये जिन्दा हो उठते हैं।मगर उसके बाद फुलस्टाप । मेरे ही शहर में शहीद भगत सिंह की पहली प्रतिमा { वह भी आधी यानि बष्ट } सन २००५ में लगी। जबकि १९४७ के बाद के तथाकथित राष्ट्रनायकों की कम से कम ५० प्रतिमाएं जिन पर साल में दो-दो बार {जन्म और अवसान दिवस}अलग-अलग राजनीतिक दलों के लोग मेला जैसा लगाते हैं । इनके भी अपने-अपने इष्ट होते हैं । माला भी उसी को पहनाई जाती है जिसके वारिसों में राजनीतिक लाभ दिलाने की कूबत हो ।
क्या यह सोचना अतिरंजना होगी की एक दिन एक पीढी ऐसी भी होगी जिसके दिलो-दिमाग से इन्कलाब के किस्से डिलीट हो चुके होंगे या जो उन्हें कॉमिक हीरोज की तरह अवास्तविक पात्र मानने लगेगी । ऐसे हालात न बनें इसके लिए हम ख़बरनवीसों को अपनी भुमिका तलाश करनी होगी ।
ऐसे हालात न बने इसके लिए कम से कम शहीदों के जन्म और अवसान दिवस इस तरह मनाये जाए जैसे कोई तीज त्यौहार मनाया जाता है ताकि नई पीढी उन अमर शहीदों को अपना आदर्श और आराध्य समझ सके ...
समाज को रियल और रील और हीरोज के बीच फर्क करना सीखना ही होगा । कुछ ऐसा किया जाए कि हम नौनिहालों को इंक़लाब का अर्थ और इन्कलाब के लिए चुकाई गई कीमत के किस्से घुट्टी की तरह पिला सके । त्योहारों की तरह उनका जन्म भी जन्माष्टमी और शहादत मुहर्रम के मातम जैसी हो जाए ।
जिंदगी की जय का गीत गुनगुनाने वाले शहीदों को मेरा नमन ....
बहुत ही सही बात पंकज जी.लेकिन विडम्बना तो ये है, कि नई पीढी इन शहीदों के नाम तो जानती है,लेकिन उनका जन्म या शहादत-दिवस नहीं.शासन को भी इससे कुछ लेना-देना नहीं.ये तारीखें तो बस कैलेन्डर में रह गईं हैं,कभी मनाते तो देखा ही नहीं.
ReplyDeletepankaj bhaiya bilkul sach likha apne.
ReplyDeletefantastic, sir. you really did a good job. no body warried our real heroes. they allways blody poltics on them. were are neta thoes wanted statue of bhagat singh. they release vizapti with photo in inagral function
ReplyDeletepankaj ji namaste, aapki baat bilkul sahi, sidhi aur saaf hai, darasal hum niji swaarthon ke alaava kuchh sochna samajhna hi nahin chahte hain,"ghar se nikalna kam per aur lout kar ghar aana" bus itna hi jeevan hai. Bhagat Singh, Aazad ko yaad karne ka matlab sirf ye nahi ki woh koun the kya the. balki asal baat ye hai ki unhone kya kiya? aur hum unki amaanat aur viraasat ko kis haal me rakhe hain.khair kahin bheetar kuchh chatakta hai yeh sab dekhkar.
ReplyDeleteSir aapne jo kaha bilkul sahi kaha. Hum aaj jitnaa TV serials aur stars ke naam jaante hai utnaa hi agar hum apne ithihaas aur usme apna naam darj karaa gaye logo ke baare me jaante to aaj hum bahut aage hote. Ek hum he jo khokli aadhunikta ke pichhe bhaag rahe hai aur apni jad se hi alag hote jaa rahe he. Yadi paudha jad se hi nikal aaye to bachega kya.
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