जिनको कुछ नहीं चाहिए वे साहन के साह
आज फिर उस जोड़े पर नज़र पड़ गई... दोनों बेहद खुश दिख रहे थे... जाने किस बात पर खिलखिला रहे थे... शायद कोई गाना भी सुन रहे थे एक बाबा आदम के जमाने के ट्रांसिस्टर पर...होनी नहीं चाहिए थी पर ईर्ष्या हुई उनसे.... जब आज हम लोग परिवार और यारों-दोस्तों के साथ बैठकर दो बातें करने को भी तरस जाते हैं.... फुरसत के लम्हे ढूंढते-ढूंढते महिनों निकल जाते हैं तब ये अलमस्त खिलखिला रहे थे.... हलकी-हलकी बारिश हो रही थी... दोनों ही एक पेड़ के नीचे बैठे थे.... आज सुबह से मेरी भी ऐसी ही इच्छा हो रही थी की घर से ना निकलकर या तो टीवी देखूं या कोई उपन्यास पढूं... दो चार दोस्तों को बुलाकर कहीं आउटिंग पर निकल जाऊँ....मगर ऐसी आज़ादी मेरे नसीब में नहीं थी... कुछ जरूरी काम मेरा इंतज़ार कर रहे थे.... आखिर मन मारकर निकलना ही पड़ा... थोड़ा सा आगे बढ़ते ही इस जोड़े पर नज़र पड़ गई... यह दरअसल एक भिखारी जोड़ा था...अपने आस-पास की दुनिया से बेपरवाह ,जो अपने वक़्त के खुद मालिक थे... जिन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि बारिश होती रही तो शाम का खाना मिल पायेगा या नहीं....अचानक कोई बीमारी हो गई तो इलाज के रुपये कहाँ से आएंगे.... उनके पास ना अपनी दीवारें थीं ना ही दरवाजा... फिर वे भी बेफिक्र थे.... एक दूसरे को समय दे रहे थे... गाने सुन रहे थे और मेरे जैसों को खुश रहने का मंत्र दे रहे थे... सुख - समृद्धि और वैभव के साथ साथ सामाजिक पद-प्रतिष्ठा के लिए हम लोग क्या-क्या नहीं खोते...कहाँ-कहाँ बेईमान नहीं होते....किस-किस का दिल नहीं दुखाते...कब-कब खुद को नहीं मारते.... ज़िन्दगी के रंगमंच पर अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करते-करते कब साँसों का हिसाब पूरा हो जाता है पता ही नहीं चलता...एक के ऊपर दूसरा आवरण ओढ़ते या ओढाते..कहीं एक तो कहीं दूसरा चेहरा दिखाते फना हो जाती है ये छोटी सी ज़िन्दगी...उस भिखारी जोड़े के लिए उपजी ईर्ष्या शायद ईर्ष्या नहीं खुद पर लानत थी... शर्मिन्दगी थी.... तभी याद आ गया रहीम का वह दोहा... "चाह गई,चिंता मिटी... मनवा बेपरवाह,,,,,,,जिनको कुछ नहीं चाहिए वे साहन के साह,.... "